टिप्पणी। महाराष्ट्र के नांदेड जिले की मुखेड तालुका के अंबुलगा गांव के खेत मज़दूर माणिक घोंसटेवाड को साल के कुछ महीनों में ही खेतों में काम मिलता है। उनको जून-जुलाई में सोयाबीन या कपास की बुआई, अगस्त-सितंबर में निराई (हाथ से या कीटनाशकों से), और दिसंबर-जनवरी में कटाई के दौरान ही रोज़गार मिलता है। लेकिन यह काम भी निरंतर नहीं होता और इन महीनों के भी कुछ ही दिन काम मिल पाता है। गांव और आस-पास के इलाकों में कृषि में काम के दिन सीमित होने के कारण उनके परिवार का गुज़ारा मुश्किल हो जाता है। साल के बाकी दिन वह दिहाड़ी के लिए कई तरह के काम करते हैं, जैसे- सिर पर समान ढोने का काम, मिट्टी के बर्तन बनाना, निर्माण मज़दूर का काम। मूलता वह हर काम करता है, जो उपलब्ध हो। खेती और कटाई के मौसम में भी वह गैर कृषि काम में दिहाड़ी करके अपनी अजीविका जुटाने का प्रयास करता है, जिससे कि परिवार का खर्च निकल सके। वह मनरेगा का भी नियमित मज़दूर हैं, मगर वहां काम मिलना सरकार और पंचायत अधिकारियों की मर्ज़ी पर निर्भर करता है। पशुपालन से भी परिवार को कुछ आय होती है। इसी गांव के मारोती शिवराम मिश्किरे खेती के अलावा ड्राइवर का भी काम करते हैं। साथ ही, वे सूअर पालते हैं, जो उनके घर की आय का एक अतिरिक्त स्रोत है।
मजदूरों की बदलती परस्थिति
गांव में किए गए सर्वेक्षण के दौरान मिले खेत मजदूरों के काम के विभिन्न रूपों के ये दो उदाहरण ग्रामीण भारत में रोजगार और ग्रामीण मज़दूरों की बदलती परस्थितियों को दर्शाते हैं। इस बदलाव के कई कारण हैं, जिनमें मज़दूरों का विस्थापन करने वाली मशीनों का अंधाधुंध उपयोग और खेतों पर निर्भर मजदूरों की बढ़ती संख्या शामिल है। हमारे सामने एक ऐसी स्थिति है, जहां मजदूरों की एक बड़ी संख्या है, जिन्हें ग्रामीण इलाकों में रोजगार नहीं मिलता और न ही पलायन करने के बाद शहरी केंद्रों में सुनिश्चित रोजगार मिलता है। भारत में बढ़ता कृषि संकट इस स्थिति का मूल कारण है।
सबसे अधिक रोजगार कृषि क्षेत्र से मिलता
भारत में ग्रामीण आबादी को सबसे ज्यादा रोजगार कृषि क्षेत्र से ही मिलता है। रोजगार में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है, जो 2017-18 में 44.1% से बढ़कर 2023-24 में 46.1% हो गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में काम करने वाले लोगों की कुल संख्या 48.17 करोड़ थी। इसमें से 72 प्रतिशत कार्यबल ग्रामीण पृष्ठभूमि से है और इसमें से आधे से अधिक यानी 54.6 प्रतिशत या 26.3 करोड़ कृषि से जुड़े रोजगार में लगे हुए है। कृषि में काम करने वाले लोगों में मुख्य रूप से किसान और खेत मजदूर आते है। 2011 की जनगणना के अनुसार, इन दोनों समूहों के बीच में ज़मीन के मालिकाना हक़ की व्यवस्था एक मौलिक अंतर है, विशेष रूप से 'मालिकाना अधिकार', ‘लीज का अधिकार' और 'भूमि अनुबंध' का होना या न होना। जहां एक तरफ एक किसान के पास ज़मीन होती है, नहीं तो लीज या फिर अनुबंध होता है, वहीं दूसरी तरफ खेत मज़दूर भूमिहीन होते है और दूसरों की ज़मीन पर दिहाड़ी के लिए काम करते हैं। इसके अलावा छोटे और सीमांत किसान भी मजबूरी में दूसरों के खेतों या अन्य कामों में मजदूरी करते हैं, जिससे किसान और मजदूर के बीच की रेखा धुंधली हो गई है।
खेत मजदूर हाशिए पर
खेत मजदूर ग्रामीण सर्वहारा वर्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो कृषि उत्पादन में लगे हुए हैं। वह ग्रामीण भारत में सबसे दबे-कुचले और हाशिए पर रहने वाला वर्ग हैं। खेत मजदूर सभी संसाधनों से वंचित हैं और उनमें से भी ज्यादातर भूमिहीन है, उनके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं है और वे आजीविका के लिए अपने श्रम पर निर्भर हैं। अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के चलते वह शोषण का शिकार होते है और ज़मींदारों द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करने को मजबूर हैं। ज्यादातर खेत मज़दूरों के पास घर तक नहीं होते, जिससे उनकी मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से शोषित होते हैं, बल्कि सामाजिक रूप से भी उनका शोषण होता है और हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं, जहां उन्हें भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है। महिला खेत मजदूरों को लैंगिक भेदभाव और सामाजिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है और पुरुषों के मुकाबले समान काम के लिए बहुत कम मजदूरी मिलती है।
व्यवस्थित उत्पीड़न के कारण खेत मज़दूर समग्र विकास की मुख्य धारा से बाहर हो जाते हैं, जिससे उनके जीवन में गरीबी और गैर-बराबरी का कुचक्र बना रहता है। ऐतिहासिक रूप से यह वर्ग शिक्षा से दूर रहा है और वर्तमान में भी इनके बच्चों को आज भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती है, जिससे उनके सर्वांगीण विकास में बाधा आती है। संगठन और यूनियनों की कमी के कारण सामूहिक ताक़त, राजनीतिक चेतना और संघर्षों से ये मज़दूर अपरिचित रह जाते हैं।
बंधुआ मजदूर
भारत के बंधुआ मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा खेत मज़दूरों का रहा है। बंधुआ मजदूरी सामाजिक और आर्थिक शोषण का सबसे भयानक रूप है। यह गुलामी कर्ज़ और कर्ज़ के बोझ से पैदा होती है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता था, जैसे गुजरात में 'हाली', बिहार में 'कमिया', मध्य प्रदेश में 'हरवाहा', आंध्र प्रदेश में 'गोठी', कर्नाटक में 'जीथा' आदि। हरित क्रांति के बाद कई प्रवासी मजदूरों को अपनी मजबूरियों के कारण जमींदारों द्वारा लगाई गई तरह-तरह की पाबंदियों को मानना पड़ा, जिससे वे बंधुआ मजदूरों जैसी हालत में पहुँच गए। ग्रामीण सामंती संरचना के अंतर्गत भूमिहीन परिवार आज भी अपनी रोज़ी- रोटी के लिए जमींदारों और अमीर किसानों पर निर्भर हैं और उनके हुक्म पर काम करने के लिए मजबूर हैं। हालांकि कानूनी तौर पर बंधुआ प्रथा समाप्त हो चुकी है, पर बेरोज़गारी के चलते मजदूरों को कम मजदूरी वाले अनुबंधों में जकड़ा जाता है।
खेतिहर मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी
आज़ादी के बाद यह वर्ग सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला वर्ग है। खासकर पिछले तीन दशकों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद खेतिहर मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ी है। 1960 से 2001 तक के चार दशकों में कुल कृषि कार्यबल में खेत मजदूरों से ज्यादा किसान थे। लेकिन, 2011 की जनगणना में पहली बार यह रुझान बदला। जनगणना से पता चला कि कुल कृषि कार्यबल में किसानों की हिस्सेदारी आधे से कम (लगभग 45%) रह गई थी, जबकि खेत मजदूरों की हिस्सेदारी करीब 55% थी। असल संख्या में किसानों की कुल संख्या 11,86,69,264 थी, जबकि खेतिहर मजदूरों की संख्या 14,43,29,833 थी। 1961 में हर 100 किसानों पर 33 खेत मजदूर थे, लेकिन 2011 में यह संख्या बढ़कर हर 100 किसानों पर 121 मजदूर हो गई।
खेत मजदूरों की संख्या बढ़ने के कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण है किसानों का गरीब होना, खासकर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद। इन नीतियों के कारण कृषि को मिलने वाली सरकारी मदद कम हो गई, जिससे खेती की लागत बहुत बढ़ गई और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या फसल की खरीद की कोई गारंटी नहीं रही। इस वजह से कृषि की पूरी प्रक्रिया ज्यादा अनिश्चित हो गई है। पहले किसानों के लिए सिर्फ मौसम की ही अनिश्चितता थी - वे सूखे और बारिश से डरते थे, लेकिन अब बाजार की अनिश्चितताएँ प्रकृति से भी ज्यादा कठिन और कठोर हैं। जब पूरी प्रक्रिया का एकमात्र लक्ष्य मुनाफा ही होता है, तो इसमें खेत मजदूरों की जिंदगी का कोई मूल्य नहीं बचता।
किसान खेती छोड़ रहे
लगातार बने रहने वाला कृषि संकट छोटे और सीमांत किसानों को अपनी खेती से विस्थापित कर रहा है और वह किसानी छोड़ने के लिए मजबूर हो रहें है, क्योंकि अब खेती उनके परिवार का पेट नहीं पाल पा रही है। राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकड़ों पर आधारित अध्ययन बताते हैं कि लाखों छोटे किसानों को अपनी जमीन बेचनी पड़ रही है, खेती छोड़नी पड़ रही है और वह मजदूरों की कतारों में शामिल हो रहें हैं। सिर्फ किसान ही नहीं, बल्कि छोटे कारीगर भी अपना रोजगार खो रहें हैं और उन्हें खेत मजदूर के रूप में या अन्य छोटे-मोटे काम करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
वर्तमान में खेत मजदूरों की संख्या किसानों से ज्यादा हो गई है, इसका मतलब है कि ज्यादा खेत मज़दूरों की खेती पर निर्भरता बढ़ गई है। खेत मजदूरों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। साथ ही, मशीनों और प्रौद्योगिकी के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कृषि में काम के दिन और कम कर दिए हैं।
बढ़ती बेरोजगारी, गहराता संकट
ग्रामीण भारत में बढ़ती बेरोजगारी, कृषि क्षेत्र में बढ़ते संकट और आमदनी की कमी के कारण युवाओं को अपनी जीविका के लिए पलायन करना पड़ रहा है। शहरों में आर्थिक संकट और बढ़ती बेरोजगारी एक जटिल स्थिति पैदा कर रही है। इन हालातों में, बड़ी संख्या में मजदूरों को गैर-कृषि क्षेत्रों में काम ढूँढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यह स्थिति ग्रामीण भारत के मजदूरों को अपने परिवार के गुजारे के लिए तरह-तरह के काम करने पर मजबूर कर रही है। ज्यादातर खेत मजदूर पूरे साल किसी एक काम तक सीमित नहीं रहते। लगभग सभी ग्रामीण मजदूर अलग-अलग अनुपात में खेती के काम में हिस्सा लेते हैं। इसके अलावा, वह सब समय-समय पर कई तरह के काम करते हैं - जैसे मनरेगा का काम, ईंट भट्टे पर मजदूरी, खेतों में मजदूरी या फिर आस-पास के छोटे शहरों में औद्योगिक काम।
खेती में काम करने वाले खेत मजदूर और गैर-कृषि काम करने वाले मजदूर अब मजदूरों के दो अलग-अलग समूह नही रह गए हैं। खेत मजदूर कृषि के साथ-साथ कई तरह के गैर-कृषि काम भी करते हैं, जिसमें शहरी इलाकों में पलायन करके काम करने वाले मजदूर भी शामिल हैं। फिर भी, ये मजदूर आंशिक रूप से गांव और खेती से जुड़े रहते हैं और शहरी मजदूर वर्ग से कई मायनों में अलग हैं। इसका मतलब यह है कि गांवों के बड़ी संख्या में मजदूर अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, लेकिन वे खेती से जुड़े हुए हैं।
खेत मजदूर कर रहे खुदकुशी
ज्यादातर खेत और ग्रामीण मजदूरों को सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी मिलती है। कम आमदनी और बढ़ती बेरोजगारी के बीच, खेत मजदूरों का जीवन कल्याणकारी योजनाओं और सार्वजनिक संस्थाओं पर निर्भर है। परंतु नवउदारवाद समर्थक पूंजीवादी ताकतें इन कल्याणकारी संस्थाओं के खिलाफ हैं। केरल की वाम मोर्चा सरकार को छोड़कर, पूरे देश में स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों का तेजी से निजीकरण हो रहा है। सभी तरह की पेंशन योजनाओं को सीमित करने की वजह से ग्रामीण भारत का एक बड़ा हिस्सा परेशान है। स्थिति इतनी खराब है कि मनरेगा के तहत रोज़गार के अधिकार को जानबूझकर कमजोर किया जा रहा है। संकट इतना गहरा हो चुका है कि खेत मजदूर आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं, जो उनकी भयावह स्थिति को दर्शाता है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2014 से अब तक कुल 40,685 खेत मजदूरों ने आत्महत्या की है।
जिस समय खेत मजदूरों के रोज़गार और रहन-सहन में बदलाव आ रहा है, तब गांवों में एक नए अमीर वर्ग का भी उदय हुआ है। यह वर्ग पिछले साढ़े तीन दशकों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद खासतौर पर सामने आया है। ये लोग इन नीतियों के फायदे पाने वालों में शामिल हैं। ये आमतौर पर उच्च शिक्षा और आधुनिक संगठित क्षेत्र की नौकरियों का फायदा उठाने में आगे होते हैं। अच्छी उपजाऊ ज़मीन खरीदने के अलावा, इन्होंने गैर-कृषि व्यवसायों में भी निवेश किया है, जिसमें ब्याज पर क़र्ज़ देना, अनाज व्यापार और डेयरी चलाना, रियल एस्टेट, निर्माण, सिनेमा हॉल, पेट्रोल पंप, होटल, परिवहन सेवाएं कृषि मशीनरी किराए पर देना और निजी शिक्षण संस्थान चलाना आदि शामिल हैं। खासकर शैक्षणिक सेवाएं अब उनके लिए आमदनी का जरिया और सामाजिक वर्चस्व का माध्यम बन चुकी है। ये वित्तीय निवेश से भी आमदनी कमाते हैं। आर्थिक गतिविधियों से आगे बढ़कर, ये सत्ता के ढांचे में भी प्रभाव जमाने की कोशिश करते हैं। वे पंचायत, विधान सभा, संसद और प्रशासनिक तंत्र में भी सक्रिय हैं।
इस वर्ग की खास पहचान है ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में राजनीतिक दबदबा, जो पूंजीपति पार्टियों के साथ गठजोड़ से बनता है। गाँवों में सत्तारूढ़ वर्ग की राजनीतिक मशीनरी का एक मजबूत स्तंभ होने के नाते, यह समूह राज्य संस्थाओं पर काफी नियंत्रण रखता है। यह ग्रामीण कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को अपने हित में मोड़ देता है, चाहे वे योजनाएं वंचित समूहों के लिए ही क्यों न हों। इसमें मनरेगा जैसे कार्यक्रम भी शामिल हैं, जिन पर इनका गहरा प्रभाव होता है। इसके अलावा, ताकतवर ठेकेदार अपनी सामंती विरासत से जुड़े दबंगई भरे तरीकों से शोषण करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाते हैं।
संगठित करने की जरुरत
हमारा संगठनात्मक अनुभव यह भी बताता है कि ग्रामीण भारत में रोजगार के बदलते स्वरूपों के बावजूद, मज़दूरों की आजीविका का एक आधार कृषि रहता ही है, जहां ज्यादातर मजदूर वर्गीय रूप से भूमिहीन खेतमजदूर परिवारों से आते हैं। इतने विविध पृष्ठभूमि वाले मजदूरों को एकजुट करने और संगठित करने के लिए गंभीर प्रयासों की जरूरत है। इन सभी मजदूरों को संगठित करना, एकजुट करना और ग्रामीण भारत के शासक वर्ग के खिलाफ संघर्ष छेड़ना अब वक्त की जरूरत बन चुका है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में मजदूरों के संघर्ष सिर्फ कार्यस्थल की मांगों तक सीमित नहीं हैं। उन्हें भूमिहीनता, कम मजदूरी, कल्याणकारी योजनाओं में कटौती, लिंग और जाति आधारित उत्पीड़न जैसी व्यवस्थागत समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। यह ग्रामीण मज़दूरों को एकजुट और संगठित (प्रवासी मज़दूरों सहित, जिनको प्रवास के स्रोत और गंतव्य दोनों स्थानों पर) करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है, क्योंकि ग्रामीण सर्वहारा वर्ग की (अपनी अस्थायी भूमिकाओं की विविधता से परे) वर्गीय पहचान एक जैसी है। केवल एक एकजुट और संगठित ग्रामीण सर्वहारा वर्ग ग्रामीण धनवानों और हिंदुत्ववादी ताकतों के सत्तारूढ़ गठजोड़ के खिलाफ शक्तिशाली संघर्ष खड़ा कर सकता है, जिससे ग्रामीण भारत में शक्ति संतुलन में गुणात्मक बदलाव का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
विक्रम सिंह, लेखक अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।
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